जागेश्वर धाम जागृत शिव हैं जहां

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उत्तराखंड के अल्मोड़ा में स्थिति 124 मंदिरों का समूह जागेश्वर अलौकिक है। यह दृादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है…
प्रकृति के नैसर्गिक सौंदर्य से शोभित हिमालय, जहां कहीं गंगा की धरा बहती है, तो कहीं घने देवदार के जंगल हैं, कहीं अनगिनत पक्षियों का कलरव है, तो कहीं फूलों की रंगीन बहार, कहीं टूटी सड़कें तो कहीं अचानक सामने आते भेड़ बकरियों के रेवड। देवताओं को इन पर्वतों ने ऐसा अभिभूत किया कि इन्होने यही अपना निवास बना लिया। इसी ईशवरीय स्वरूप को करीब से महसूस करने की चाहत बरबस जागेश्वर धाम की तरफ हमें खींच लेती है।

पुराणों में उल्लेख
जागेश्वर का उल्लेख स्कंद पुराण में मिलता हैं, जो सीके अति प्राचीन होने का परिचायक है। यहां पांडवों के आश्रय होने के आज भी अनेक मूक साक्ष्य मिलते हैं। घने देवदार के जंगलों के बीच घुमावदार बलखाती सड़कें, सन्नाटे को चीरती अनेक आवाजें अजीब-सा सम्मोहन पैदा करती हैं। छोटी-छोटी दुकानों से निकलते धुंए, सर्द हो रहे हाथों को गर्म करें का आमंत्रण देते लगते हैं। चाय, पकौड़े, जीरे वाला आलू, खीरे का पीला चटपटा पहाड़ी रायता थके शरीर को तरोताजा कर देता है। एक नई ऊर्जा के साथ जागेश्वर बस पहुंच ही गए।

नागर शैली में बने मंदिर
नागर शैली में बने यहां के मंदिर भव्य होने के साथ बीती कई सदियों के संदेशवाहक हैं। कोई इसे हजार तो कोई इन्हें दो हजार साल पुराना बताता है। लिखित साक्ष्य न होने से भारतीय इतिहास प्रामाणिकता से ज्यादा अटकलों का शिकार है। मंदिर की दीवारों पर ब्राह्मी और संस्कृत में लिखे शिलालेख इसकी निशिचत तारीख के बारे कोई समाधान नहीं देते। दीवारों को हाथ से छूने पर एक शांति और आत्मीयता जरूर महसूस होती है। कटयूरिया राजवंश ने इन मंदिरों का निर्मणा करवाया, जिनके समय में ऐसे बने अनेक मंदिरों का उल्लेख मिलता है। भरतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इसे संरक्षित घोषित कर रखा है और कुछ कदमों की दुरी पर एक म्यूजियम भी है, जहां खुदाई के दौरान मिली अनेक अलौकिक मूर्तियां हैं। पहाड़ों की सर्दीली बर्फीली हवा, देवदार के पेड़ों के बीच से बहती जटा गंगा की पतली धारा, मंदिर में बजते घंटे, मंत्रों का उच्चारण मन के कोनों को झंकृत कर देता है।
पुष्टि माता मंदिर के पुजारी पंडित कमल भट्ट से हमारी मुलाकात मंदिर के बाहर हो गई, जिन्होंने कई जानकारियां हमारे साथ साझा कीं। मंदिर घुमाते हुए उन्होंने बताया कि इस समूह में पांच प्रमुख मंदिर हैं जहां पूजा अर्चना होती है। ये मंदिर हैं महा मृत्युंजय मंदिर, जागेश्वर महादेव, पुष्टि माता मंदिर, केदारनाथ मंदिर और हनुमान मंदिर। वैसे तो और भी मंदिर है इस प्रांगण में, पर ये पांच उल्लेखनीय हैं। मंदिर में प्रवेश के साथ बायीं ओर विराजमान भैरव बाबा का आशीर्वाद जरूरी माना जाता है। लंबी स्वस्थ आयु के लिए यहां कई जगह महा मृत्युंजय मंत्र का जाप हो रहा था। समीप जाने पर पूजा की वेदी पर बने नवग्रह इस बात को बड़ी सरलता से समझा गए हम इस पृथ्वी पर भी इन ग्रहों के प्रभाव लते हैं। यह ब्रह्मांड औलोकिक है। जागेश्वर महादेव मंदिर के बारे में कमल भट्ट पंडित ने बताया कि यहां कि खास बात यह है कि शिव कि आराधना बाल या तरुणा रूप में की जाती है। मंदिर के बाहर सशस्त्र द्वारपाल, नंदी रो स्कन्दी खड़े है। हमने भी मंदिर में घुसने से पहले इनकी सहमति मांगी ओर एक अनोखी मौन स्वीकृति मसहूस भी की। मंदिर के अंधेरे में जलती अखंड ज्योत दिल के अनेक कोनों को प्रकाशित कर देती हैं। पुष्टि माता मंदिर बाकी मंदिरों की तुलना में काफी छोटा है, पर माता की मूर्ति कोटि-कोटि आशीष देती ओर मनोकामना पूरी करती प्रतीत होती है। शाम की आरती का समय हो गया था तो हम आरती में शामिल हो गए। शंख, घंटे ओर ऊंचें स्वर में आराध्यदेव का उद्धोष सारी थकान हर गया।
हमें मंदिर के पास बने गेस्ट हाउस में रुकने का फैसला किया, क्योंकि सुबह रुद्रभिषेक करना था। यहां 800 रु. से 5000 रु. के बीच रहने के अनेक विकल्प आसानी से उपलब्ध हैं। इनमे उल्लेखनीय कुमाऊं मंडल गेस्ट हाउस, वन सराय जागेश्वर, ईको ग्रीन विलेज, अरतोला हैं। यहां ठहरने, खाने पीने की व्यवस्था बहुत अच्छी है। रात के खाने में पहाड़ी आलू की सब्जी, अरहर की दाल और रोटी बहुत अच्छी लगी।
सुबह उठ कर हम तैयार होकर जल्दी मंदिर पहुंच गए, जहां कमल भट्ट पंडित पूजा की तैयारी में व्यस्त थे। पूजा करते समय मैनें अनुभव किया की सभी शिवलिंग का बड़ी श्रद्धा से अभिषेक क्र रहे थे और पूजा में इस्तेमाल सभी सामग्री गांवों के घरों से आई थी। बाजार के दूध, दही, शहद का प्रयोग वर्जित है। यहां के स्थानीय लोगों का अपनी धरोहर के प्रति प्रेम और समर्पण देख में नतमस्तक हो गई। मंदिर के चारों और देवदार के पेड़ हैं जिसमें एक पेड़ में समस्त शिव परिवार के दर्शन होते हैं। मनुष्य, देवता और प्रकृति बड़ी खूबसूरती से एक दूसरे में समाहित हैं। अचानक बजते ढोल नगाड़ों की तरफ हमारा ध्यान गया। पता चला पार्वती जी का डोला चला आ रहा है। हर वर्ष जून के महीने वे अपने मैके जाती है, इसलिए शिव मंदिर के चीर या वस्त्र लेने आती हैं। पहाड़ी आस्था संस्कृति का नया आयाम देखने को मिला। मंदिर से कुछ दुरी पर पांच देवदार पेड़ों के समूह को पंच पांडव के नाम से जाना जाता है। इसके पास ही ऋण पंचमी मंदिर भी है जहां खीर का भोग लगता है। एक-डेढ़ किलोमीटर दूर पहाड़ी पर राम पादुका के चिन्ह बताए जाते हैं। स्थानीय लोगों से बात करना कितनी रहस्यमयी जानकारियां और कहानियां सामने लाता है। यहां प्रकृति, मनुष्य और ईश्वर सभी एक दूसरे में समाहित हैं। हमने आपने आप से एक वादा किया कि जागेश्वर फिर जल्द लौटेंगे।

124 मंदिरों का समूह
जागेश्वर करीब 124 मंदिरों का समूह है। यह द्रादश ज्योतिर्लिंगों में से आठवां है, इसलिए इसका आध्यात्मिक महात्म्य है। नागेश जिन्हें आठवां ज्योतिर्लिंग माना गया है वह दारुक वन यानि देवदार के जंगल में स्थापित हैं। ‘सेतुबन्धे तू रामेशम नागेशम दरूकवने’ भगवान शिव के निवास का पौराणिक उल्लेख कुछ ऐसा मिलता है ‘हिमाद्रेरुतरे पाशर्व देवदारुवनम परम पवनम शंकर स्थानम तंत्र सर्वे शिवचर्चित’ उत्तर में बर्फ से ढके हिमालय के बगल में परम सुंदर देवदार का वन है जो शिव का पालन स्थल है, जहां चरों तरफ शिव कि आराधना एवं स्मरण होता है।

कैसे पहुंचे
दिल्ली से करीब 385 किलोमीटर की दुरी पर स्थित जागेश्वर सड़क और रेल मार्ग से पहुंचना सहज है। यदि आप चाहें तो दिल्ली से काठगोदाम शताब्दी एक्सप्रेस से आरामदायक यात्रा कर सकते हैं या ड्राइविंग के शौकीन हैं तो अपनी या किराए की गाड़ी से रास्ते भर प्राकृतिक सौंदर्य का भरपूर लुत्फ़ उठाते जा सकते हैं।

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